औरंगज़ेब : मुग़ल साम्राज्य का सबसे विस्तारवादी एवं एशिया में एक उदारवादी शासक
अबुल मुज़फ़्फ़र मुहिउद्दीन मुहम्मद औरंगज़ेब आलमगीर (3 नवम्बर १६१८ – ३ मार्च १७०७) जिसे आमतौर पर औरंगज़ेब या आलमगीर (प्रजा द्वारा दिया हुआ शाही नाम जिसका अर्थ होता है विश्व विजेता) के नाम से जाना जाता था ।
शुरूआती जीवन : औरंगज़ेब का जन्म 3 नवम्बर १६१८ को दाहोद, गुजरात में हुआ था। वो शाहजहाँ और मुमताज़ महल की छठी संतान और तीसरा बेटा था। उसके पिता उस समय गुजरात के सूबेदार थे। जून १६२६ में जब उसके पिता द्वारा किया गया विद्रोह असफल हो गया तो औरंगज़ेब और उसके भाई दारा शूकोह को उनके दादा जहाँगीर के लाहौर वाले दरबार में नूर जहाँ द्वारा बंधक बना कर रखा गया। २६ फ़रवरी १६२८ को जबशाहजहाँ को मुग़ल सम्राट घोषित किया गया तब औरंगज़ेब आगरा किले में अपने माता पिता के साथ रहने के लिए वापस लौटा। यहीं पर औरंगज़ेब ने अरबी और फ़ारसी की औपचारिक शिक्षा प्राप्त की।
सत्तासन
मुग़ल प्रथाओं के अनुसार, शाहजहाँ ने 1634 में शहज़ादा औरंगज़ेब को दक्कन का सूबेदार नियुक्त किया। औरंगज़ेब किरकी ( महाराष्ट्र ) को गया जिसका नाम बदलकर उसने औरंगाबाद कर दिया। 1637 में उसने रबिया दुर्रानी से शादी की। इधर शाहजहाँ मुग़ल दरबार का कामकाज अपने बेटे दारा शिकोह को सौंपने लगा। 1644 में औरंगज़ेब की बहन एक दुर्घटना में जलकर मर गई। औरंगज़ेब इस घटना के तीन हफ्ते बाद आगरा आया जिससे उसके पिता शाहजहाँ को उसपर बेहद क्रोध आया। उसने औरंगज़ेब को दक्कन के सूबेदार के ओहदे से बर्ख़ास्त कर दिया। औरंगज़ेब 7 महीनों तक दरबार नहीं आ सका। बाद में शाहजहाँ ने उसे गुजरात का सूबेदार बनाया। औरंगज़ेब ने सुचारू रूप से शासन किया और उसे इसका सिला भी मिला, उसे बदख़्शान (उत्तरी अफ़गानिस्तान ) और बाल्ख़ (अफ़गान-उज़्बेक) क्षेत्र का सूबेदार बना दिया गया।
इसके बाद उसे मुल्तान और सिंध का भी गवर्नर बनाया गया। इस दौरान वो फ़ारस के सफ़वियों से कंधार पर नियंत्रण के लिए लड़ता रहा पर उसे हार के अलावा और कुछ मिला तो वो था- अपने पिता की उपेक्षा। 1652 में उसे दक्कन का सूबेदार फ़िर से बनाया गया। उसने गोलकोंडा और बीजापुर के खिलाफ़ लड़ाइयाँ की और निर्णायक क्षण पर शाहजहाँ ने सेना वापस बुला ली। इससे औरंगज़ेब को बहुत ठेस पहुँची क्योंकि शाहजहाँ ऐसा उसके भाई दारा शिकोह के कहने पर कर रहा था।
सत्ता संघर्ष
शाहजहाँ १६५२ में ऐसे बीमार हुए कि लोगों को उनका अन्त निकट लग रहा था। ऐसे में दारा शिकोह ,शाह शुजा और औरंगज़ेब के बीच में सत्ता संघर्ष शुरू हुआ। शाह शुजा जिसने स्वयं को बंगाल का राज्यपाल घोषित कर दिया था, अपने बचाव के लिए बर्मा के अरकन क्षेत्र में शरण लेने पर विवश हुआ। १६५९ में औरंगज़ेब ने शाहजहाँ को ताज महल में बन्दी बना लिया और स्वयं को शासक घोषित किया। दारा शिकोह को गद्दारी के आरोप में फाँसी दी गई। शासक होकर भी औरंगज़ेब ने राजकोष से अपने पर कुछ खर्च नहीं किया।
शासनकाल
मुग़ल, ख़ासकर अकबर के बाद से, ग़ैर-मुस्लिमों पर उदार रहे थे लेकिन औरंगज़ेब उनके ठीक उलट था। औरंगज़ेब ने जज़िया कर फिर से आरंभ करवाया, जिसे अकबर ने ख़त्म कर दिया था। उसने कश्मीरी ब्राह्मणों को इस्लाम क़बूल करने पर मजबूर किया। कश्मीरी ब्राह्मणों ने सिक्खों के नौवें गुरु तेग़ बहादुर से मदद मांगी। तेग़बहादुर ने इसका विरोध किया तो औरंगज़ेब ने उन्हें फांसी पर लटका दिया। इस दिन को सिक्ख आज भी अपने त्यौहारों में याद करते हैं।
साम्राज्य विस्तार
औरंगज़ेब के शासन काल में युद्ध-विद्रोह-दमन-चढ़ाई इत्यादि का तांता लगा रहा। पश्चिम में सिक्खों की संख्या और शक्ति में बढ़ोत्तरी हो रही थी। दक्षिण में बीजापुर और गोलकुंडा को अंततः उसने हरा दिया पर इस बीच शिवाजी की मराठा सेना ने उनको नाक में दम कर दिया। शिवाजी को औरंगज़ेब ने गिरफ़्तार कर तो लिया पर शिवाजी और सम्भाजी के भाग निकलने पर उसके लिए बेहद फ़िक्र का सबब बन गया। आखिर शिवाजी महाराजा ने औरंगजेब को हराया और भारत में मराठो ने पूरे देश में अपनी ताकत बढाई शिवाजी की मृत्यु के बाद भी मराठों ने औरंग़जेब को परेशान किया। इस बीच हिन्दुओं को इस्लाम में परिवर्तित करने की नीति के कारण राजपूत उसके ख़िलाफ़ हो गए थे और उसके 1707 में मरने के तुरंत बाद उन्होंने विद्रोह कर दिया।
धार्मिक नीति
सम्राट औरंगज़ेब ने इस्लाम धर्म के महत्व को स्वीकारते हुए ‘ क़ुरान’ को अपने शासन का आधार बनाया। उसने सिक्कों पर कलमा खुदवाना, नौरोज का त्यौहार मनाना, भांग की खेती करना, गाना-बजाना आदि पर रोक लगा दी। 1663 ई. में सती प्रथा पर प्रतिबन्ध लगाया। तीर्थ कर पुनः लगाया। अपने शासन काल के 11 वर्ष में ‘झरोखा दर्शन’, 12वें वर्ष में ‘तुलादान प्रथा’ पर प्रतिबन्ध लगा दिया, 1668 ई. में हिन्दू त्यौहारों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। 1699 ई. में उसने हिन्दू मंदिरों को तोड़ने का आदेश दिया। बड़े-बड़े नगरों में औरंगज़ेब द्वारा ‘मुहतसिब’ (सार्वजनिक सदाचारा निरीक्षक) को नियुक्त किया गया। 1669 ई. में औरंगज़ेब ने बनारस के ‘ विश्वनाथ मंदिर’ एवं मथुरा के ‘केशव राय मदिंर’ को तुड़वा दिया। उसने शरीयत के विरुद्ध लिए जाने वाले लगभग 80 करों को समाप्त करवा दिया। इन्हीं में ‘आबवाब’ नाम से जाना जाने वाला ‘रायदारी’ (परिवहन कर) और ‘पानडारी’ (चुंगी कर) नामक स्थानीय कर भी शामिल थे। औरंगज़ेब ‘दारुल हर्ब’ (क़ाफिरों का देश भारत) को ‘दारुल इस्लाम’ (इस्लाम का देश) में परिवर्तित करने को अपना महत्त्वपूर्ण लक्ष्य मानता था। औरंगज़ेब के समय में ब्रज में आने वाले तीर्थ−यात्रियों पर भारी कर लगाया गया जज़िया कर फिर से लगाया गया और हिन्दुओं को मुसलमान बनाया गया। उस समय के कवियों की रचनाओं में औरंगज़ेब के अत्याचारों का उल्लेख है।
जजिया कर
औरंगजेब द्वारा लगाया गया जजिया कर उस समय के हिसाब से था। अकबर ने जजिया कर को समाप्त कर दिया था, लेकिन औरंगजेब के समय यह दोबारा लागू किया गया। जजिया सामान्य करों से अलग था जो गैर मुस्लिमों को चुकाना पड़ता था। इसके तीन स्तर थे और इसका निर्धारण संबंधित व्यक्ति की आमदनी से होता था। इस कर के कुछ अपवाद भी थे। गरीबों, बेरोजगारों और शारीरिक रूप से अशक्त लोग इसके दायरे में नहीं आते थे। इनके अलावा हिंदुओं की वर्ण व्यवस्था में सबसे ऊपर आने वाले ब्राह्मण और सरकारी अधिकारी भी इससे बाहर थे। मुसलमानों के ऊपर लगने वाला ऐसा ही धार्मिक कर जकात था जो हर अमीर मुसलमान के लिए देना ज़रूरी था ।
आधुनिक मूल्यों के मानदंडों पर जजिया निश्चितरूप से एक पक्षपाती कर व्यवस्था थी। आधुनिक राष्ट्र, धर्म और जाति के आधार पर इस तरह का भेद नहीं कर सकते। इसीलिए जब हम 17वीं शताब्दी की व्यवस्था को आधुनिक राष्ट्रों के पैमाने पर इसे देखते हैं तो यह बहुत अराजक व्यवस्था लग सकती है, लेकिन औरंगजेब के समय ऐसा नहीं था। उस दौर में इसके दूसरे उदाहरण भी मिलते हैं। जैसे मराठों ने दक्षिण के एक बड़े हिस्से से मुगलों को बेदखल कर दिया था। उनकी कर व्यवस्था भी तकरीबन इसी स्तर की पक्षपाती थी। वे मुसलमानों से जकात वसूलते थे और हिंदू आबादी इस तरह की किसी भी कर व्यवस्था से बाहर थी।
मौत
औरंगज़ेब के अन्तिम समय में दक्षिण में मराठों का ज़ोर बहुत बढ़ गया था। उन्हें दबाने में शाही सेना को सफलता नहीं मिल रही थी। इसलिए सन 1683 में औरंगज़ेब स्वयं सेना लेकर दक्षिण गया। वह राजधानी से दूर रहता हुआ, अपने शासन−काल के लगभग अंतिम 25 वर्ष तक उसी अभियान में रहा। 50 वर्ष तक शासन करने के बाद उसकी मृत्यु दक्षिण के अहमदनगर में 3 मार्च सन 1707 ई. में हो गई। दौलताबाद में स्थित फ़कीर बुरुहानुद्दीन की क़ब्र के अहाते में उसे दफना दिया गया। उसकी नीति ने इतने विरोधी पैदा कर दिये, जिस कारण मुग़ल साम्राज्य का अंत ही हो गया।
स्थापत्य निर्माण
औरंगज़ेब ने 167 ई. में लाहौर की बादशाही मस्जिद बनवाई थी। औरंगज़ेब ने 1678 ई. में बीबी का मक़बरा अपनी पत्नी रबिया दुर्रानी की स्मृति में बनवाया था। औरंगज़ेब ने दिल्ली के लाल क़िले में मोती मस्जिद बनवाई थी।