देवियांण –माहात्म्य
देवियांण की प्रसिद्धि महात्मा ईसरदास के जीवनकाल में ही फैलने लगी थी। इसका प्रचार मुख्य रूप से हस्तलेख व श्रुतिपरम्परा से हुआ। हस्तलेख व श्रुतिपरम्परा में प्रचलित काव्य में पाठान्तर होना स्वाभाविक है। देवियांण की भी यही स्थिति है। इसकी पाण्डुलिपियाँ भारत के विभिन्न स्थानों पर पाई जाती हैं। उनमें भी विभिन्न पाठान्तर उपलब्ध हैं।
देवियांण के तुलनात्मक पाठालोचन का काम सर्वप्रथम विख्यात साहित्यकार श्री शार्दूलसिंह कविया ने किया।
कवियाजी अध्यात्मनिष्ठ साहित्यकार व साधक हैं। उन्होंने देवियांण के मूल भाव को आत्मसात् किया है। वे देवियांण की महिमा बताते हुए लिखते हैं – ‘‘देवियांण एक दिव्य स्तवगान है। इसमें भक्तकवि ईसरदास तन्मय होकर मातेश्वरी का गुणगान करते है। देवियांण का भक्तिपूर्वक नित्य नियमित पाठ करने पर मातृसत्ता से सामीप्य का अनुभव होने लगता है। स्वतः पात्रता विकसित होती जाती है। अनन्यभाव से माँ की शरण ग्रहण कर लेने पर मन मातेश्वरी के प्रेम में मतवाला हो जाता है। अन्तर में आनन्द उमड़ने लगता है।’’
मुख्य लक्ष्य देवियांण को छन्दों की मात्रा, गण, लय और गेयता के अनुरूप शुद्ध रूप में प्रस्तुत करना है। पाठ की प्रस्तुति में पौराणिक सन्दर्भ, लोकमान्यता तथा अर्थानुशीलन का भी आश्रय लिया है। पाठालोचन की इस प्रक्रिया में भगवती की कृपा तथा अन्तःकरण की प्रवृत्ति ही प्रेरक व अवलम्बन हैं।
दोहा
बांचो दुर्गा सप्तशती, या बांचो देवियांण।
पाठी श्रोता को परम, सुखप्रद उभय समान ।। 1।।
चाहे दुर्गासप्तशती का पाठ करो या देवियांण का। पाठ करने और सुनने वाले के लिए दोनों समान रूप से सुखदायक हैं।
देवियांण सुणि देवि मां, श्रीमुख किये बखान।
देवियांण किय ईशरा, चण्डीपाठ समान।।2।।
देवी माता रुक्मिणीजी ने ईसरदास से देवियांण का पाठ सुनकर उसके माहात्म्य का बखान करते हुए कहा – ‘‘ईसरा! तुमने देवियांण की रचना चंडीपाठ (दुर्गासप्तशती) के समान की है।
मार्कण्ड मुनिराय कृत, चण्डी पाठ समान।
ईसर कृत देवियांण को, म्हातम बड़ो महान ।।3।।
ईसरदास द्वारा रचित देवियांण का माहात्म्य बहुत अधिक है। यह महामुनि मार्कण्डेय द्वारा रचित चंडीपाठ (दुर्गासप्तशती) के समान है।
देवियांण को प्रति दिवस, जे घर होसी पाठ।
ते घर रहसी रिद्धि सिद्धि, राज–पाट सम ठाठ ।।4।।
जिस घर में देवियांण का प्रतिदिन पाठ होगा, उस घर में रिद्धि-सिद्धि का निवास होगा तथा राजपाट के समान ठाठ होगा।
कायम बाँचे के सुणे, देवियांण जे कोय।
इच्छित अैहि सुख अमित, पावे मानुष सोय ।।5।।
जो देवियांण का पाठ नित्य-नियम करता या सुनता है वह मनुष्य कामना के अनुसार अपरिमित सुख पाता है।
विद्या बल सुख सम्पदा भगती ज्ञान विराग
मातु कृपा ते भक्तजन पावे हिय अनुराग।।6।।
देवियांण का पाठ करने वाला भक्त श्री माताजी की कृपा से विद्या, बल, सुख, सम्पत्ति, भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और प्रेम पाता है।
सप्त श्लोकी भागवत और गीता की भाँति भक्तवर ईसरदासजी ने भी भक्तजनों के हितार्थ इस सप्तपदी हरिरस को बनाया है जिसे “छोटा हरिरस” कहते हैं। इस छोटे हरिरस के नित्य-पाठ और श्रवण-मनन का महात्म्य भी बड़े हरिरस के सामान ही माना जाता है।
के जीवनकाल में ही फैलने लगी थी। इसका प्रचार मुख्य रूप से हस्तलेख व श्रुतिपरम्परा से हुआ। हस्तलेख व श्रुतिपरम्परा में प्रचलित काव्य में पाठान्तर होना स्वाभाविक है। देवियांण की भी यही स्थिति है। इसकी पाण्डुलिपियाँ भारत के विभिन्न स्थानों पर पाई जाती हैं। उनमें भी विभिन्न पाठान्तर उपलब्ध हैं।
देवियांण के तुलनात्मक पाठालोचन का काम सर्वप्रथम विख्यात साहित्यकार श्री शार्दूलसिंह कविया ने किया।
कवियाजी अध्यात्मनिष्ठ साहित्यकार व साधक हैं। उन्होंने देवियांण के मूल भाव को आत्मसात् किया है। वे देवियांण की महिमा बताते हुए लिखते हैं – ‘‘देवियांण एक दिव्य स्तवगान है। इसमें भक्तकवि ईसरदास तन्मय होकर मातेश्वरी का गुणगान करते है। देवियांण का भक्तिपूर्वक नित्य नियमित पाठ करने पर मातृसत्ता से सामीप्य का अनुभव होने लगता है। स्वतः पात्रता विकसित होती जाती है। अनन्यभाव से माँ की शरण ग्रहण कर लेने पर मन मातेश्वरी के प्रेम में मतवाला हो जाता है। अन्तर में आनन्द उमड़ने लगता है।’’
मुख्य लक्ष्य देवियांण को छन्दों की मात्रा, गण, लय और गेयता के अनुरूप शुद्ध रूप में प्रस्तुत करना है। पाठ की प्रस्तुति में पौराणिक सन्दर्भ, लोकमान्यता तथा अर्थानुशीलन का भी आश्रय लिया है। पाठालोचन की इस प्रक्रिया में भगवती की कृपा तथा अन्तःकरण की प्रवृत्ति ही प्रेरक व अवलम्बन हैं।
दोहा
बांचो दुर्गा सप्तशती, या बांचो देवियांण।
पाठी श्रोता को परम, सुखप्रद उभय समान ।। 1।।
चाहे दुर्गासप्तशती का पाठ करो या देवियांण का। पाठ करने और सुनने वाले के लिए दोनों समान रूप से सुखदायक हैं।
देवियांण सुणि देवि मां, श्रीमुख किये बखान।
देवियांण किय ईशरा, चण्डीपाठ समान।।2।।
देवी माता रुक्मिणीजी ने ईसरदास से देवियांण का पाठ सुनकर उसके माहात्म्य का बखान करते हुए कहा – ‘‘ईसरा! तुमने देवियांण की रचना चंडीपाठ (दुर्गासप्तशती) के समान की है।
मार्कण्ड मुनिराय कृत, चण्डी पाठ समान।
ईसर कृत देवियांण को, म्हातम बड़ो महान ।।3।।
ईसरदास द्वारा रचित देवियांण का माहात्म्य बहुत अधिक है। यह महामुनि मार्कण्डेय द्वारा रचित चंडीपाठ (दुर्गासप्तशती) के समान है।
देवियांण को प्रति दिवस, जे घर होसी पाठ।
ते घर रहसी रिद्धि सिद्धि, राज–पाट सम ठाठ ।।4।।
जिस घर में देवियांण का प्रतिदिन पाठ होगा, उस घर में रिद्धि-सिद्धि का निवास होगा तथा राजपाट के समान ठाठ होगा।
कायम बाँचे के सुणे, देवियांण जे कोय।
इच्छित अैहि सुख अमित, पावे मानुष सोय ।।5।।
जो देवियांण का पाठ नित्य-नियम करता या सुनता है वह मनुष्य कामना के अनुसार अपरिमित सुख पाता है।
विद्या बल सुख सम्पदा भगती ज्ञान विराग
मातु कृपा ते भक्तजन पावे हिय अनुराग।।6।।
देवियांण का पाठ करने वाला भक्त श्री माताजी की कृपा से विद्या, बल, सुख, सम्पत्ति, भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और प्रेम पाता है।
सप्त श्लोकी भागवत और गीता की भाँति भक्तवर ईसरदासजी ने भी भक्तजनों के हितार्थ इस सप्तपदी हरिरस को बनाया है जिसे “छोटा हरिरस” कहते हैं। इस छोटे हरिरस के नित्य-पाठ और श्रवण-मनन का महात्म्य भी बड़े हरिरस के सामान ही माना जाता है।